কেদারনাথ সিং
উত্তর প্রদেশের বালিয়ার চকিয়া গ্রামে ১৯৩৪ সালের ৭ই জুলাই কবি কেদারনাথ সিং-এর জন্ম। অধ্যাপনা ছিল পেশা। হিন্দি কবিতার জগতে কেদারনাথ সিং একটি অত্যুজ্জ্বল নাম। 'অভী বিলকুল অভী', 'জমীন পক রহী হ্যায়', 'য়হাঁ সে দেখো', 'অকাল মে সারস', 'বাঘ', 'তলস্তয় ঔর সাইকিল', 'উত্তর কবীর ঔর অন্য কবিতায়েঁ' , 'সৃষ্টি পর পহরা' প্রমুখ তাঁর উল্লেখযোগ্য কয়েকটি কাব্যগ্রন্থ। তাঁর কবিতায় ঘরোয়া শব্দের অবাধ চলন, সহজ কথায় গূঢ় বার্তাবাহী আবেদন তাঁকে এক আলাদা আসনে আসীন করেছে। ১৯৮৯ সালে 'অকাল মে সারস' কাব্যগ্রন্থের জন্য তাঁকে সাহিত্য আকাদেমি পুরস্কারে সম্মানিত করা হয়। সারাজীবনের কাব্যকৃতির জন্য ২০১৩ সালে সাহিত্যের সর্বোচ্চ জ্ঞানপীঠ পুরস্কারেও তাঁকে সম্মানিত করা হয়।
২০১৮ সালে প্রকাশিত 'মতদান কেন্দ্র পর ঝপকী' কবির শেষ কাব্যগ্রন্থ। নিজের হাতে তৈরি করেছিলেন এ বইয়ের পান্ডুলিপি। কিন্তু ছাপার অক্ষরে দেখে যেতে পারেননি। তার আগেই সে বছর ১৯ শে মার্চ কবি কেদারনাথ সিং প্রয়াত হন।
'সময় সে পহলী মুলাকাত', 'নদী কা স্মারক' এবং 'দেবনাগরী' এই শিরোনামের তিনটি কবিতা নির্বাচিত হয়েছে তাঁর 'সৃষ্টি পর পহরা' কাব্যগ্রন্থ থেকে। মূল হিন্দি থেকে অনুবাদ করেছেন কবি স্বপন নাগ।
কেদারনাথ সিং-এর তিনটি কবিতা
সময়ের সঙ্গে প্রথম সাক্ষাৎ
সময়ের সঙ্গে প্রথম সাক্ষাৎ হল কবে
ভাবলেই মনে পড়ে
প্রথম পাঠশালার মুন্সী হুলাস রামের কথা
দুপুরের ছুটি হবার আগে সে বলত,
বাচ্চারা, কুয়োর কাছে যাও
আর গিয়ে দেখে এসো তো
দুপুরের ফুল এখন ফুটেছে কী না
ছুটি হত বারোটায়
সে বিশ্বাস করত
দুপুরের ফুল ঠিক বারোটায় ফুটে ওঠে
ছোট ছোট সেই ফুল
আর বারোটা বাজার মধ্যে কী যে সম্পর্ক
ভেবে অবাক হতাম আমরা
এভাবেই সময় একদিন চলে এসেছিল আমার ভেতর
সেও তো জেনেছি অনেক অনেক পরে
সেই সব ছোট ছোট ফুল
আর কুয়োর পাশে কাদা-জল
যে-সবের প্রভাবে
হামেশাই গুলিয়ে যায় আমার ঘড়ি
কাকেই বা জিজ্ঞেস করি এখন
আমার তো নয়,
তবে কার, কার এই সময়
অবিরাম বাজতে থাকে আমারই ঘড়িতে ?
নদীর স্মৃতিচিহ্ন
এখন নেহাতই সে এক শুষ্ক নদীর শুকনো স্মৃতিচিহ্ন
এক কাঠের পুরনো জীর্ণ কাঠামো
যা দেখে এখনো লোকে বলে 'নৌকো'
মানুষের অনেক উপকারে লেগেছিল সে, জানি
এও জানি, বছরের পর বছর পড়ে থেকে থেকে
এই জীর্ণ কাঠামো এখন
হারিয়েছে তার প্রয়োজনীয়তা
ভেবেছি তাই, এবার গেলে তাকেই বলব,
বন্ধুগণ, কীসের এত মোহ
আখেরে কাঠের পুরনো কঙ্কালই তো !
সামনে পড়ে আছে জ্বালানি হয়ে
নিছকই কাঠের স্তূপ
এমনিতেই
দুনিয়া নৌকো থেকে এগিয়ে গেছে অনেক দূর
তাই, কেটে-চিরে গুঁজে দাও ওকে উনুনে
তাও যদি না-হয়
বানিয়ে ফেলবো তক্তা বা টুল
এভাবেই মৃত নৌকো
আবার ফিরে পাবে এক নতুন জীবন
খুব যত্নে সেই শব্দগুলোকে সামলিয়ে
যখন পৌঁছলাম তার কাছে
সেই চোখের সামনে ভুলে গেছি সব
'দুনিয়া এগিয়ে গেছে নৌকো থেকে'
ভেবে গিয়েও
তা বলার সাহস চুরমার হয়ে গেল
সেই চোখ তাকিয়েছিল এমনভাবে
বিশ্বাস করো, যেন বলছিল
হোক্ না কাঠের জর্জর খাঁচা
তবু থাকতে দাও 'নৌকো'-কে
এখানে আছে যখন,
একদিন না একদিন ঠিক ফিরে আসবে নদী
জানি, ফিরে আর আসবে না সে
আসেও যদি, হবে সে অন্য নদী
বাঁক নেবে অন্য কোথাও
তাই, ফিরে আসার আগে
সেই জীর্ণ কঙ্কালের কাছে আমি মাথা নত করি
আর, যেভাবে পারাপার শেষে
ঘরে ফিরে আসে যাত্রী
আমিও ফিরে আসি, নীরবে।
দেবনাগরী
এই যে সহজ সরল আমার দেবনাগরী লিপি --
এতই সরল যে, ভুলে গেছে তার সমস্ত অতীত।
তবে আমার মনে হয়,
'ক' কোনো কুড়ুলের আগে আসেনি এ পৃথিবীতে,
'চ' হয়তো জন্মেছে
কোনো শিশুর গালে মায়ের সস্নেহ চুম্বন থেকে।
'ট' বা 'ঠ' এতই তেজী
যেন কোনো পাথরকে ফাটিয়ে সে আছড়ে পড়ছে।
'ন' যেন অন্যায়ের বিরুদ্ধে এক স্থায়ী প্রতিরোধ !
'ম' যেন কোনো পশুর জননী-খোঁজার ডাক --
কন্ঠ-নিঃসৃত যা 'মা' হয়ে গেছে।
'স'-এর সঙ্গীতে যদি কান পাতো
হয়তো শুনতে পাবে কোনো চাপা কান্না,
এমনও হতে পারে,
অবিরাম লিখতে-থাকা হাতের কষ্ট
চাপা পড়ে আছে এক পূর্ণচ্ছেদের নিচে !
কোনো অক্ষরের দিকে
নিবিড়ভাবে দেখো কখনো --
দেখতে পাবে তার কালির নিচে
একটি ক্ষীণ আলোর রেখা ...
এ সব আমাদেরই উল্লাস
যা বদলে গেছে মাত্রা-য়,
অনুস্বারে নেমে এসেছে অনেক কন্ঠ-অবরোধ !
অথচ, কে বলতে পারে
এর অন্তিম বর্ণ 'হ'-তে
লুকিয়ে আছে কতটুকু হাসি,
আর কতখানিই বা হাহাকার !
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মূল হিন্দি থেকে অনুবাদ : স্বপন নাগ
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समय से पहली मुलाक़ात
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समय से मेरी पहली मुलाक़ात कब हुई-
सोचता हूं तो याद आते हैं पहली पाठशाला के
मुंसी हुलास राम
दुपहर की छुट्टी से पहले
कहते थे वे
बच्चों, कुएं के पास जाओ
और जाकर देख आओ
दुपहर के फूल अभी खिले कि नहीं
छुट्टी बारह बजे होती थी
और उनका विश्वास था
दुपहर के फूल ठीक बारह बजे खिलते हैं
अब उन छोटे-छोटे फूलों
और बारह बजने के बीच क्या है सम्बन्ध-
यह एक चमत्कार की तरह लगता था हमें
यह तो मैंने बाद में जाना
कि समय इसी तरह चला आता था मेरे भीतर
उन छोटे-छोटे फूलों
और कुएं के पास के कांदो-पानी समेत-
जिसके हस्तक्षेप से अक्सर
गड़बड़ा जाती है मेरी घड़ी
अब किससे पुंछू
यह मेरा तो नहीं
आखिर किसका समय है
जो बजता रहता है मेरी घड़ी में ?
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नदी का स्मारक
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अब वह सूखी नदी का
एक सूखा स्मारक है
काठ का एक जर्जर पुराना ढांचा-
जिसे अब भी वहां लोग
कहते हैं 'नाव'
जानता हूं - लोगों पर उसके
ढेरों उपकार है
पर जानता यह भी हूं कि उस ढांचे ने
बरसों से पड़े-पड़े
खो दी है अपनी ज़रूरत
इसलिए सोचा
अबकी जाऊंगा तो कहूंगा उनसे-
भाई लोगो,
काहे का मोह
आखिर काठ का पुराना ढांचा ही तो है
सामने पड़ा एक ईंधन का ढेर-
जिसका इतना टोटा है !
वैसे भी दुनिया
नाव से बहुत आगे निकल गई है
इसलिए चीरकर-फाड़कर
उसे झ़ोक दो चूल्हे में
यदि नहीं
तो फिर एक तखत या स्टूल ही बना डालो उसका
इस तरह मृत नाव को
मिल जाएगा फिर से एक नया जीवन ...
पर पूरे जतन से
उन शब्दों को सहेजकर
जब पहूंचा उनके पास
उन आंखों के आगे भूल गया वह सब
जो गया था सोचकर
'दुनिया नाव से आगे निकल गई है'-
यह कहने का साहस
हो गया तार-तार
वे आंखें
इस तरह खुली थी
मानो कहती हों-
काठ का एक जर्जर ढांचा ही सही
पर रहने दो 'नाव' को
अगर वो वहां है तो एक न एक दिन
लोट आएगी नदी
जानता हूं
वह लौटकर नहीं आएगी
आएगी तो वह एक और नदी होगी
जो मुड़ जाएगी कहीं और
हो, चलने से पहले
मैंने उस जर्जर ढांचे को
सिर झुंकाया
और जैसे कोई यात्री पार उतरकर
जाता है घर
चुपचाप लौट आया।
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देवनागरी
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यह जो सीधी-सी सरल-सी
अपनी लिपि है देवनागरी
इतनी सरल है
कि भूल गयी है अपनी सारा अतीत
पर मेरा खयाल है
'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले
नहीं आया था दुनिया में
'च' पैदा हुआ होगा
किसी शिशु के गाल पर
मां के चुम्बन से
'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार है
कि फूट पड़े होंगे
किसी पत्थर को फोड़कर
'न' एक स्थायी प्रतिरोध है
हर अन्याय का
'म' एक पशु के रंभाने की आवाज
जो किसी कंठ से छनकर
बन गयी होगी 'मां'
'स' के संगीत में
संभव है एक हल्की-सी सिसकी
सुनाई पड़े तुम्हें
हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे
किसी लिखते हुए हाथ की
तकलीफ़ दबी हो
कभी देखना ध्यान से
किसी अक्षर में झांककर
वहां रोशनाई के तल में
एक ज़रा-सी रोशनी
तुम्हें हमेशा दिखाई पड़ेगी
यह मेरे लोगों का उल्लास है
जो ढल गया है मात्राओं में
अनुस्वार में उतर आया है
कोई कंठावरोध
पर कौन कह सकता है
इसके अंतिम वर्ण 'ह' में
कितनी हंसी है
कितना हाहाकार !
অনুবাদ ও মূল, দুইই মনে ছাপ রাখল। স্বতন্ত্রভাবে দুটি ভাষাতেই অপূর্ব মাত্রা পেয়েছে।
উত্তরমুছুনধন্যবাদ
উত্তরমুছুন